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हे तमाशबीनों!

Saturday 17 June 2023 08:15 AM UTC+00 | Tags: opinion

Pravah Bhuwanesh Jain column: दो दिन पहले दिल्ली में एक घटना घटी। तीसरी मंजिल पर चल रहे एक कोचिंग संस्थान में आग लग गई। वहां पढ़ रहे सैकड़ों बच्चों को जान बचाने के लिए रस्सी के सहारे उतरना या कूदना पड़ा। बहुत से बच्चे घायल हो गए। बहुत दुखद घटना है। लेकिन इस घटना का इससे भी ज्यादा दुखद पहलू दूसरा है। बिल्डिंग के नीचे जहां बच्चे कूद रहे थे- वहां इकट्ठा सैकड़ों लोग अपने-अपने मोबाइल से कूदते हुए बच्चों के वीडियो बनाने में जुटे थे। न बच्चों के प्रति कोई संवेदना थी, न उनकी मदद करने की इच्छा। ऐसा लग रहा था कि संवेदनशून्य लोग कोई तमाशा देख रहे हों।


यह घटना बताती है कि हमारे शहर संवेदनशून्य तमाशबीनों की भीड़ में बदलते जा रहे हैं। दिल्ली हो, जयपुर हो, इंदौर हो या कोई भी अन्य शहर। सब जगह ऐसी ही संवेदनशून्यता पसरी नजर आती है। यही कारण है कि शहरों में अपराधियों के हौसले बुलंद होते जा रहे हैं। वे जानते हैं- जिसे चाहो लूट लो, कोई मदद को नहीं आएगा। हत्या, बलात्कार, लूट जैसे बड़े अपराधों की तो बात अलग है- चेन लूटने, पर्स छीनने, मारपीट करने, मोबाइल छीनने जैसी घटनाएं भी तेजी से बढ़ती जा रही हैं। अपराधी इतने बेखौफ हो गए हैं कि दिनदहाड़े बाइकों पर धड़धड़ाते हुए आते हैं और वारदात कर आराम से निकल जाते हैं। आस-पास के लोग बस तमाशा देखते रहते हैं।

जयपुर पुलिस के पास दर्ज मामलों पर ही नजर डालें तो हर माह शहर में औसतन 34 मोबाइल छीन लिए जाते हैं, 14 महिलाओं की चेन तोड़ ली जाती है, 8 महिलाओं के पर्स झपट लिए जाते हैं। ये तो केवल दर्ज मामलों की संख्या है। इससे कहीं ज्यादा घटनाएं होती हैं। लोग छोटा नुकसान मानकर या तो केस दर्ज ही नहीं कराते या पुलिस टालमटोल कर जाती है। ये लुटेरे पुलिस और जनता की निष्क्रियता का पूरा लाभ उठाते हैं। किसी के भी घर में घुसकर मारपीट करने में भी संकोच नहीं करते। वहां भी अड़ोसी-पड़ोसी तमाशबीन बन कर रह जाते हैं। जरूरत पड़ने पर गवाही तक देने से इनकार कर देते हैं। हां, सोशल मीडिया पर पुलिस से लेकर गृहमंत्री तक को कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ते।

यह सही है कि अपराधों का बढ़ता ग्राफ रोकने में पुलिस व्यवस्था काफी हद तक जिम्मेदार है। अपराधियों से मिलीभगत के मामले भी सामने आते हैं। रिपोर्ट दर्ज करने में ना-नुकर करना, शिकायतकर्ता को बेवजह परेशान करना, थाने के चक्कर लगवाना जैसे उदाहरण सामने आते रहते हैं। पर क्या केवल पुलिस को कोस कर हमारा कर्त्तव्य पूरा हो जाता है। सड़क पर या पड़ोस में अपराध होने पर भी तमाशबीन बने रहना किसी अपराध से कम नहीं है। कल ऐसी घटनाएं आप या आपके परिवार के साथ भी हो सकती हैं।

तथाकथित 'सभ्यता' ने आज हमारे सामाजिक रिश्तों और संवेदनाओं को निगल लिया है। केवल सरकार और पुलिस को कोसने की बजाय एक पल ठहर कर अपने भीतर झांकें। रिश्ते बनाएं। संवेदनाएं जगाएं। किसी के साथ भी अपराध घटित होता है तो अपराधियों से एकजुट होकर निपटें। फिर देखिए, कैसे सारे अपराधी दुम दबाकर आपके शहर से भागते हैं। आपकी सक्रियता पुलिस को भी सुधार देगी।

bhuwan.jain@epatrika.com


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