अलवर. भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अलवर का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। प्रजामंडल ने यहां आजादी की अलख जगाई और स्वतंत्रता मिलने तक इसे अनवरत गतिमान बनाए रखा। हालांकि स्वतंत्रता आंदोलन की अगुवाई कर रहे कुछ नेताओं को उस दौर में जेल की यातनाएं भी सहनी पड़ी। वहीं दिन-रात गांव-गांव घूम लोगों में आजादी की अलख जगाने का कार्य किया। यही कारण है कि जब भी देश के स्वतंत्रता संग्राम का जिक्र आता है, उसमें अलवर की भागीदारी को नकारा नहीं जा सकता। स्वतंत्रता संग्राम में राजस्थान (तत्कालीन राजपूताना) का बड़ा योगदान रहा है। सन् 1857 से आजादी प्राप्त होने 1947 तक चले आजादी के लंबे संघर्ष में अलवर जिले के कई वीर सपूतों ने पराक्रम दिखाते हुए जान की बाजी लगाई।
ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ सन् 1857 में हुई क्रांति में भी अलवर के वीर सपूतों ने योगदान दिया। इनमें अलवर के सूबेदार चिम्मनसिंह भाटी ने नसीराबाद छावनी के विद्रोह में एक अंग्रेज को मार गिराया। वहीं स्वतंत्रता सेनानी पं. लक्ष्मण स्वरूप त्रिपाठी के चचेरे दादा कर्ण त्रिपाठी ने मेरठ छावनी सशस्त्र विद्रोह में भूमिका निभाई। इनके अलावा भी कई अन्य वीर सपूतों ने स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजों से लोहा लिया, लेकिन अलवर जिले में आजादी की असली अलख वर्ष 1939 में प्रजामंडल के गठन के बाद ही जगी।
भारत छोड़ो आंदोलन से प्रभावित हुआ प्रजामंडल
महात्मा गांधी ने 8 अगस्त 1942 को कांग्रेेस की मुम्बई बैठक में भारत छोड़ो आंदोलन का ऐलान किया। उसी दिन एक अन्य बैठक में महात्मा गांधी ने देशी राज्यों के प्रजामंडलों के नेताओं को अपने-अपने शासकों को पत्र लिखकर ब्रिटिश सार्वभौमिकता से संबंध तोडऩे की मांग करने का सुझाव दिया। इसी सुझाव पर अलवर में प्रजामंडल ने कार्य योजना तैयार की। उस दौरान अलवर राज्य में सामंतशाही थी, फिर भी जागरुक नागरिकों व अलवर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की सहानुभूति आंदोलन के प्रति थी। कांग्रेस व प्रजामंडल के कार्यकर्ताओं ने गुप्त रूप से पटरियों पर बैठक कर आंदोलन को सक्रिय सहयोग देने का निर्णय किया। बाद में महात्मा गांधी ने सन् 1943 में पूना के आगाखां महल में 21 दिनों की भूख हड़ताल की घोषणा की। इसका अलवर जिले में बाबू शोभाराम पर जादुई प्रभाव पड़ा और वे आठ दिन बाद ही भूख हड़ताल पर बैठ गए। उनकी भूख हड़ताल 13 दिन चली और महात्मा गांधी की भूख हड़ताल के साथ ही टूटी। इस घटना से शोभाराम सर्वप्रिय नेता के रूप में उभरे।
यह रहा प्रजामंडल का स्वाधीनता संग्राम का सफर
प्रजामंडल के विस्तार के लिए बाबू शोभाराम ने गांव-गांव साथियों के साथ दौरा कर सभाएं की। इसका असर यह हुआ कि जनता का मनोबल ऊपर उठा। प्रजामंडल के सदस्य सामंतशाही के नुमाईंदे व पुलिस की ओर से अन्याय वाले स्थानों पर पहुंचते। इस दौर में प्रजामंडल के नेतृत्व में राजनीतिक गतिविधियों का सिलसिला शुरू हुआ। वर्ष 1943 से जिले में आंदोलन जोर पकडऩे लगा। शोभाराम के साथ मास्टर भोलानाथ, लाला काशीराम, फूलचंद गोठडिया एवं अन्य कार्यकर्ता भी अलख जगाने में जुटे थे। उन्हीं दिनों रामजीलाल अग्रवाल भी कानपुर, इंदौर आदि स्थानों पर छात्र व मजदूर आंदोलनों का अनुभव लेकर लौटे और प्रजामंडल के सहयोग में जुट गए। वर्ष 1944 में गिरधर आश्रम में राजस्थान व मध्य भारत की रियासतों के प्रजामंडल कार्यकर्ताओं का सम्मेलन हुआ। इनमें लोकनायक जयप्रकाश नारायण, गोकुल भाई भट्ट जैसे बड़े नेता आए। प्रजामंडल ने जागीर माफी जुल्म, कस्टम टैक्स, तंबाकू पर टैक्स, उत्पादन पर बढ़े कर, वारफण्ड की जबरन वसूली, पुलिस व राजस्व अधिकारियों की ज्यादती के विरोध में आंदोलन किए। इस कार्य में कृपादयाल माथुर, रामचंद्र उपाध्याय व अन्य कार्यकर्ताओं का साथ मिला। इसी तरह थानागाजी में तहसीलदार रिश्वतखोरी मामले का भी प्रजामंडल ने विरोध किया। इस आंदोलन में पं. हरिनारायण शर्मा, लक्ष्मीनारायण खंडेलवाल व अन्य लोग थानागाजी पहुंचे और सभा की।
प्रजामंडल में विलय हुआ था कांग्रेस का
अलवर जिले में कांग्रेस की स्थापना सितम्बर 1937 में मन्नी का बड़ स्थित महादेव मंदिर में हुई थी। वर्ष 1938 में राज्य में पहली बार सरकार ने छात्रों पर चार आना मासिक फीस लगाने की घोषणा की। कांग्रेस ने सरकार की इस घोषणा का विरोध कर गिरफ्तारियां दी। बाद में वर्ष 1939 ई. में मोदी नत्थूराम के घर प्रजामंडल की स्थापना हुई। कुछ समय तक कांग्रेस और प्रजामंडल नाम से दो अलग-अलग संस्थाएं चलती रही, बाद में कांग्रेस के उच्च नेताओं के परामर्श पर अगस्त 1940 ई. में कांग्रेस को प्रजामंडल में विलीन कर दिया गया। इसी वर्ष संस्था विधिवत पंजीकृत भी हो गई।