उदयपुर. मेवाड़ और आसपास के क्षेत्रों में श्राद्ध पक्ष के साथ ही घरों के बाहर गोबर और फूलों से सांझी बनाई जाती थी। कन्याओं द्वारा बनाई जाने वाली सांझी की परंपरा धीरे-धीरे लुप्त होने की कगार पर पहुंच गई है। जिसे कुछ लोग जीवित रखने का प्रयास भी कर रहे हैं।
श्राद्ध के दिनों में पूर्णिमा से लेकर बारस तक घरों के बाहर प्रतिदिन शाम को सांझी बनाई जाती थी। सांझी बनाने का काम कन्याए करती थी। सांझी बनाने के साथ ही उसकी पूजा करके प्रसाद अर्पित किया जाता था और आसपास के घरों में उसे वितरित करने की परंपरा थी। यह क्रम कन्या के पैदा होने के बाद 16 साल तक अनवरत चलता था। वक्त के साथ यह परंपरा लुप्त हो गई है।
ये आकृतियां बनाई जाती है
पूर्णिमा को पांच पछेटे, एकम पर केले का पेड़, बीज के दिन बिजणा पंखा और छाछ-बिलौना, तीज को तीन तिबारी, चौथ को चौपड़-पाशा, पांचम पर पांच पछेटे, छठ पर फूल छाबड़ी और छाछ-बिलौना, सप्तमी पर स्वास्तिक, अष्टमी पर आठ पंखुड़ी का फूल, नवमी पर नौ डोकरियां (नवदुर्गा), दशम पर दस कड़ी वाला बंदनवार, ग्यारस पर जनेऊ, बारस को कोट बनाते हैं, चक्रव्यूह आदि बनाए जाते हैं।
चार दिन तक रहता है कोट
सांझी के अंतिम दिन कोट बनाया जाता है। इसमें महल, रथ घट्टी, दस दिन में बनाए जाने वाली चीजें बनाई जाती है। कोट के बाहर विभिन्न समाज के लोगों को दर्शाया जाता है। नीचे जाड़ी जसोदा और पतली पेमल भी बनाई जाती है। नाथद्वारा की सांझी में कृष्ण लीलाओं काा महत्व है। ऐसे में वहां सुदर्शन चक्र, गोवर्धनजी आदि की सांझी बनाई जाती है।
श्राद्ध के दिन पत्तल-दोने
सांझी बनाने के दौरान जिस घर में सबसे बुजुर्ग परिजन का श्राद्ध होता है उस दिन सांझी के साथ पत्तल-दोने बनाने की परंपरा भी रही है। इसके साथ ही प्रतिदिन कौआ, मीरा बाई, चांद-सूरज आदि बनाए जाते हैं।
12 साल से सांझी बना रही हूं
उत्तरी सुंदरवास विद्याविहार कॉलोनी में रहने वाली रेखा पुरोहित ने बताया कि उनकी बेटी के पैदा होने के साथ ही सांझी बनाना शुरू किया। इसके पीछे सोच यह थी कि लुप्त होती परंपरा से नई पीढी भी रूबरू हो। आज 12 साल हो गए हैं प्रतिवर्ष श्राद्ध पक्ष में घर के बाहर सांझी बनाई जा रही है। इसको प्रतिदिन सोशल मीडिया पर शेयर भी करती हूं। इसको देखकर कई परिवारों ने भी अपने घर के बाहर सांझी बनानी शुरू की है। वर्तमान में आसानी से गोबर नहीं मिलता इसके साथ ही लड़कियां भी हाथ गंदे करने से बचती है।
मेवाड़ में बनती है जल सांझी
मेवाड़ के कृष्ण मंदिरों में जलसांझी बनाने की परंपरा भी रही है। यह परंपरा भी अब लुप्त होती जा रही है। उदयपुर शहर में मात्र दो कलाकार राजेश वैष्णव और राजेश पंचोली ही इस परंपरा का जीवित रखे हुए हैं। इसमें पात्र में जल भरकर सुंदर रंगों से कृष्ण लीला के दृश्य उकेरे जाते हैं।