>>: चमकाए बगैर आखिर कैसे 'चक दे' राजस्थान

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चमकाए बगैर आखिर कैसे 'चक दे' राजस्थान
- जिले से लेकर प्रदेश भर में ग्रास रूट पर खिलाडिय़ों के समक्ष बेहिसाब संकट
- खेल बजट व दैनिक भत्ते से लेकर साधन-संसाधन संबंधी कमी रोक रही राह
- प्रदेश में केवल दो ही जिलों में एस्ट्रो ट्रर्फ की सुविधा
अदरीस खान @ हनुमानगढ़. तराशे जाने से पहले हीरा भी केवल पत्थर ही होता है। उसकी कीमत और महत्व तराशे जाने के बाद ही बढ़ता है। कुछ ऐसी ही स्थिति खिलाडिय़ों की होती है। ग्रास रूट पर अगर खेल प्रतिभाओं को तराशने के साधन-संसाधन हो तो वे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हीरे जैसी चमक बिखेर सकते हैं। खेल प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देकर व चमका कर ही उनसे पदक की उम्मीद की जा सकती है।
अगर जमीनी स्थिति देखी जाए तो दूसरे राज्यों की तुलना में हमारे यहां खेल और खिलाडिय़ों को पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं मिल पाता। जिले से लेकर पूरे प्रदेश में खेलों की हालत बदहाल है। ऐसे में देश का सबसे बड़ा प्रदेश होने के बावजूद राजस्थान खेलों में अपेक्षाकृत मुकाम हासिल नहीं कर सका है। प्रदेश के खिलाडिय़ों की उपस्थिति राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम ही दिखाई देती है। इसकी वजह यह है कि प्रारंभिक व माध्यमिक शिक्षा में खेल बजट, सुविधा तथा संसाधनों के नाम पर कुछ नहीं मिलता। क्रिकेट की चकाचौंध में राष्ट्रीय खेल हॉकी से लेकर हर खेल की हालत खस्ता है।
आउटडोर में हालत खराब
आउटडोर खेल फुटबाल, हॉकी आदि में राज्य का प्रदर्शन सबसे अधिक खराब रहता है। क्योंकि इन खेलों के लिए खिलाडिय़ों को बढिय़ा साजो-समान की जरूरत होती है। लेकिन प्रदेश के किसी भी स्कूल में राष्ट्रीय खेल हॉकी के लिए एस्ट्रो ट्रर्फ नहीं है। उबड़-खाबड़ मैदान पर हॉकी खेलकर प्रदेश के खिलाड़ी टर्फ पर खेलने वालों के सामने टिक नहीं पाते।
हॉकी की हालत खस्ता
राष्ट्रीय खेल हॉकी की हालत सबसे ज्यादा खस्ता है। जिले से लेकर पूरे प्रदेश में हॉकी के खिलाड़ी प्रोत्साहन व सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं। प्रदेश में जयपुर व अजमेर को छोड़ कर किसी भी जिले में एस्ट्रो टर्फ की सुविधा नहीं है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हॉकी एस्ट्रो टर्फ पर खेली जाती है। जबकि जिला मुख्यालय सहित पूरे प्रदेश में ग्रास मैदान पर हॉकी प्रतियोगिताएं होती हैं। इससे खिलाडिय़ों को आगे खेलने में काफी परेशानी होती है।
तैराकी व जिम्नास्टिक में खानापूर्ति
प्रदेश के अधिकांश जिलों में कुछ खेलों के साथ तो जमकर खिलवाड़ किया जाता है। इनमें तैराकी व जिम्नास्टिक प्रमुख है। जिले में तैराकों के लिए कहीं भी मापदंडों के अनुरूप तरणताल की व्यवस्था नहीं है। जबकि जिला व राज्य स्तर पर हर वर्ष तैराकी प्रतियोगिता होती है। इसलिए खानापूर्ति कर तैराकी प्रतियोगिता के लिए टीम गठित कर ली जाती है। कई जगहों पर तो नहर में भी तैराकी प्रतियोगिता करवा ली जाती है। यही हाल जिम्नास्टिक का है। जिम्नास्टिक प्रतियोगिता के दौरान गद्दों के अभाव में चटाई व दरियों से काम चलाया जाता है। इससे खिलाडिय़ों को चोट लगने की आशंका रहती है।
बजट का रोना
सरकारी स्कूलों में खेल के लिए पैसे की स्थिति यह है कि इसके लिए अलग से कोई विशेष बजट नहीं होता। समसा की ओर से जो बजट मिलता है, उससे कई कार्य करवाने होते हैं। यदि कुछ पैसा बच जाए तो खेल पर खर्च होता है। ऐसे में नाम मात्र की राशि ही बच पाती है। जबकि खेल का सामान दिनोंदिन महंगा हो रहा है। जाहिर है कि जब खेल सामान व सुविधाओं का टोटा होगा तो खिलाड़ी कैसे तैयार होंगे। वहीं प्राथमिक विद्यालयों में खेल बजट की और भी बुरी स्थिति है। खेल पेटे सीधे कोई बजट नहीं होने के कारण छात्र विकास शुल्क से राशि खर्च करनी पड़ती है। इस मद से भी निर्धारित से अधिक राशि नहीं खर्च की जा सकती। ऐसे में संस्था प्रधानों को खेल पर खर्च राशि प्राप्त करने के लिए नाकों चने चबाने पड़ते हैं।
नहीं फुल फ्लैश प्रशिक्षक
राजीव गांधी जिला खेल स्टेडियम में यूं तो कई खेलों के खिलाड़ी आते हैं। मगर वहां स्थाई खेल प्रशिक्षकों का टोटा है। वर्तमान में केवल वेटलिफ्टिंग का ही स्थाई कोच है और उनके पास भी खेल अधिकारी का अतिरिक्त कार्यभार है। इसके अलावा पार्ट टाइम कोच रखकर ही काम चलाया जा रहा है। यह स्थिति केवल हनुमानगढ़ में ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश में है। पूर्व में जिला खेल स्टेडियम में साई सेंटर ने प्रतिनियुक्ति पर खेल प्रशिक्षक लगाए थे।
डाइट चार्ट तो हवा
बढ़ती महंगाई के दृष्टिगत खिलाडिय़ों को मिलने वाला भत्ता भी अपर्याप्त है। प्रारंभिक शिक्षा में जिला व राज्य स्तर पर खेलने वाले खिलाडिय़ों को महज 70 रुपए दैनिक तथा माध्यमिक शिक्षा में 100 रुपए दैनिक भत्ता मिलता है। इस राशि में खिलाड़ी दो वक्त सामान्य भोजन भी नहीं कर सकते। डाइट चार्ट के अनुरूप पौष्टिक भोजन लेने की बात तो बेमानी लगती है। वहीं
पड़ोसी जिले हरियाणा में खिलाडिय़ों को हमारे से दोगुना दैनिक भत्ता मिलता है। साथ ही प्रति मैच 'रिफ्रेशमेंट भत्ताÓ भी दिया जाता है जो प्रदेश के खिलाडिय़ों को नहीं मिलता। हालांकि खिलाडिय़ों के आवागमन का खर्च शिक्षा विभाग अलग से देता है। लेकिन चाय, नाश्ता, भोजन आदि का खर्च उन्हेंं दैनिक भत्ते में से ही करना होता है। यदि दमखम के लिए खिलाड़ी दूध, फल आदि का सेवन करना चाहे तो इसके लिए अपनी जेब से खर्च करना होगा।
जिला स्तर पर हो मैदान
हॉकी के प्रशिक्षकों व खिलाडिय़ों के अनुसार राष्ट्रीय खेल को प्रोत्साहन देने के लिए औद्योगिक घरानों को आगे आना चाहिए ताकि संसाधनों का टोटा न रहे। इसकी शुरुआत जिला स्तर पर एस्ट्रो ट्रफ युक्त मैदान तैयार करवाकर की जा सकती है। इसके लिए निजी स्कूल व महाविद्यालय की भागीदारी अति आवश्यक है। उन्हें 10-10 खिलाड़ी गोद लेकर उनका पूर्ण खर्चा उठाना चाहिए। शेष खेलों को भी ग्रास रूट पर ही प्रोत्साहित करने की जरूरत है। - नरेश मेहन, वरिष्ठ साहित्यकार व पूर्व सीईओ जिला क्रिकेट संघ।
सबको करना होगा प्रयास
ओलंपिक में पदक हासिल करने पर हॉकी को लेकर उत्साह का माहौल है। इसको कैश कर हॉकी को और अत्यधिक लोकप्रिय बनाकर सुविधाएं उपलब्ध करवानी चाहिए। इसके लिए ग्रास रूट से ही खिलाडिय़ों को बेहतर साधन व सुविधा मिलनी चाहिए। इसके लिए राज्य सरकार के साथ कॉरपोरेट घरानों को गंभीरता से प्रयास प्रारंभ करने चाहिए। इसके अलावा सक्षम लोगों को भी सहयोग करना चाहिए। - मस्तान सिंह, हॉकी प्रशिक्षक।
इसलिए नहीं आकर्षण
खेल सुविधाओं व साधनों की कमी की समस्या तो है। अल्प भत्ता, बजट की कमी, खेल मैदान का अभाव आदि ऐसे कई कारण हैं जिससे युवाओं में खेलों के प्रति पर्याप्त आकर्षण पैदा नहीं हो पा रहा। निजी विद्यालयों में खेलों को अपेक्षाकृत तवज्जो नहीं दी जाती। इन सबके चलते खेलों में पिछड़ जाते हैं। - हंसराज शर्मा, चीफ एथलेटिक्स कोच, प्रारंभिक शिक्षा निदेशालय।
कैसे आएंगे अच्छे नतीजे
विद्यालयी स्तर पर खेलों के विकास के लिए और ज्यादा प्रोत्साहन की जरूरत है। प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है। जरूरत केवल उन्हें प्रोत्साहित करने की है। इसके लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध करवाने होंगे। अच्छे परिणाम देने वाले खिलाडिय़ों व प्रशिक्षकों का उचित सम्मान करने की भी जरूरत है। यदि स्कूल स्तर पर ही खिलाड़ी को उचित प्रशिक्षण व पर्याप्त संसाधन नहीं मिलेंगे तो अच्छे परिणाम कैसे आ सकते हैं। - रमेश सैन, खेल प्रेमी।

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